भारत में 4 में से 3 मुस्लिम चाहते हैं इस्लामिक कोर्ट और शरिया कानून, 30% हिंदू भी इसे मानते हैं सही

भारत में 74% मुस्लिम आबादी इस्लामी अदालतों यानि शरीयत कानून को लागू करने के पक्ष में है। 59% मुसलमानों ने भी विभिन्न धर्मों के अदालतों का समर्थन किया है। उनका कहना है कि भारत को अलग अलग धार्मिक मान्यताओं वाले देश होने से फायदा मिलता है।
 
भारत में मुसलमानों की एक बड़ी आबादी संपत्ति विवाद और तलाक जैसे मामलों में इस्लामी अदालत में जाना पसंद करती है। अमेरिकी थिंक टैंक PEW की एक स्टडी में यह बात सामने आई है। इस अध्ययन से पता चला है कि हिंदू या मुसलमान, जब शादी, दोस्ती या अन्य सामाजिक मामलों की बात आती है, तो वे धार्मिक रूप से अलग जीवन जीना पसंद करते हैं। ''रिलिजन इन इंडिया: टॉलरेंस एंड सेपरेशन'' टाइटल से प्रकाशित रिपोर्ट में इसका खुलासा किया गया है।
 
PEW के एक रिसर्च के मुताबिक, भारत में 74% मुस्लिम आबादी इस्लामी अदालतों यानि शरीयत कानून को लागू करने के पक्ष में है। 59% मुसलमानों ने भी विभिन्न धर्मों के अदालतों का समर्थन किया है। उनका कहना है कि भारत को अलग अलग धार्मिक मान्यताओं वाले देश होने से फायदा मिलता है। मुसलमानों ने सर्वे में कहा है कि मुसलमानों का धार्मिक अलगाव अन्य धर्मों के प्रति उदारता के रास्ते में नहीं आता है और ऐसा ही हिंदुओं के साथ भी है।
 
भारत का ज्यूडिशियल सिस्टम कमजोर होगा
अमेरिकन थिंक टैंक के सर्वे में से पता चला है कि 30% हिंदू इस बात का समर्थन करते हैं कि मुस्लिम पारिवारिक विवादों को निपटाने के लिए अपनी धार्मिक अदालतों में जा सकते हैं। इस बात का समर्थन करने वालों में 25% सिख, 27% ईसाई, 33% बौद्ध और 33 प्रतिशत जैन भी शामिल हैं। हालांकि, ज्यातातर भारतीयों ने इस बात पर चिंता जताई है कि शरिया अदालतों का अगर निर्माण होना शुरू हो जाए तो न्यायिक व्यवस्था कमजोर हो जाएंगी। क्योंकि, शरिया अदालतों के निर्माण के बाद एक बड़ी आबादी मुख्य अदालतों का निर्देश मानने से इनकार करने लगेंगे और फिर देश की न्यायिक व्यवस्था की कमजोर हो जाएगी।

30 हजार लोगों पर सर्वे
अमेरिकी थिंक टैंक ने ये सर्वे 2019 के अंत और 2020 की शुरूआत में की थी, उस वक्त तक कोरोना महामारी ने दस्तक नहीं दी थी। इस सर्वे में 17 भाषाओं और विभिन्न धार्मिक पृष्ठभूमि के 30 हजार से ज्यादा लोगों को शामिल किया गया था। इस सर्वे में शामिल सभी लोगों ने कहा कि उनके ऊपर अपनी धार्मिक मान्यकता बदलने का कोई दवाब नहीं रहता है और वो अपनी मर्जी से अपनी धार्मिक मान्यता चुनने और उसका पालन करने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र हैं। सर्वे के लिए एजेंसी ने देश के 26 राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों के लोगों से बात की थी।
 
धर्म से परे जाकर मान्यताओं पर यकीन
भारत में कई लोग धर्म से परे जाकर कई मान्यताओं को साझा तौर पर मानते हैं। न सिर्फ हिंदुओं की तीन चौथाई आबादी (77%) कर्म में विश्वास करती है, बल्कि मुसलमानों का एक बड़ा तबका इस पर यकीन करता है। 81% हिंदुओं के अलावा 32% ईसाई गंगा नदी की शुद्ध करने की शक्ति में विश्वास करते हैं।

 

उत्तर भारत में 37% मुसलमानों के साथ 12% हिंदू और 10% सिख सूफीवाद को मानते हैं, जो इस्लाम से सबसे ज्यादा करीब से जुड़ी है। सभी प्रमुख धार्मिक पृष्ठभूमि के ज्यादातर लोगों का कहना है कि बड़ों का सम्मान करना उनकी आस्था के लिए बहुत अहम है।

 

खुद को दूसरा धर्म मानने वालों से अलग समझते हैं ज्यादातर लोग
कुछ मूल्यों और धार्मिक मान्यताओं को साझा करने के बावजूद, एक देश में, एक संविधान के तहत रहने के बाद भी भारत के ज्यादातर लोग यह महसूस नहीं करते हैं कि उनमें दूसरे धर्म के लोगों की तरह कुछ एक जैसा है। ज्यादातर हिंदू खुद को मुसलमानों से बहुत अलग मानते हैं। अधिकतर मुसलमान यह कहते हैं कि वे हिंदुओं से बहुत अलग हैं। इसमें कुछ अपवाद भी हैं। दो तिहाई जैन और लगभग आधे सिख कहते हैं कि उनमें और हिंदुओं में बहुत कुछ समान है।

 

80% मुस्लिम और 67% हिंदू दूसरे धर्म में शादी के खिलाफ
प्यू रिसर्च सेंटर के मुताबिक, भारत में ज्यादातर लोग दूसरे धर्म में शादी करने के फैसले को सही नहीं मानते। इनमें 80% मुस्लिम और 67% हिंदू हैं। हिंदुओं का कहना था कि ये जरूरी है कि उनके धर्म की महिलाओं को दूसरे धर्मों में शादी करने से रोका जाए। 65% हिंदुओं ने कहा कि हिंदू पुरुषों को भी दूसरे धर्म में शादी नहीं करनी चाहिए।

 

80% मुसलमानों का कहना था कि मुस्लिम महिलाओं के किसी दूसरे धर्म में शादी करने से रोकना बहुत जरूरी है। 76% ने कहा कि मुस्लिम पुरुषों को भी दूसरे धर्म में शादी नहीं करनी चाहिए। सर्वे में लोगों की राष्ट्रीयता को लेकर भी सवाल पूछे गए थे। सर्वे में यह भी सामने आया कि भारत के लोग धार्मिक सहिष्णुता के समर्थन में तो हैं लेकिन ,वे खुद को दूसरे धार्मिक समुदायों से अलग रखना चाहते हैं।