नेशनल ऑटिस्टिक प्राइड डे 2025: क्या आपका बच्चा भी है ऑटिज्म से प्रभावित? इन 3 आम लक्षणों से करें पहचान, जानें बचाव और उपाय!
जन्मजात न्यूरोडेवलपमेंटल बीमारी है ऑटिज्म, भारत में हर 68 में से 1 बच्चा प्रभावित; शुरुआती पहचान से संभव है बेहतर प्रबंधन और विकास!
Jun 19, 2025, 07:05 IST
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जन्मजात न्यूरोडेवलपमेंटल बीमारी है ऑटिज्म, भारत में हर 68 में से 1 बच्चा प्रभावित; शुरुआती पहचान से संभव है बेहतर प्रबंधन और विकास!
कई बार कुछ ऐसी स्वास्थ्य समस्याएं होती हैं जिनके बारे में हमें पर्याप्त जानकारी नहीं होती, और उन्हें समझना मुश्किल हो जाता है। ऐसी ही एक स्थिति है ऑटिज्म, जो बच्चों में होने वाली एक न्यूरोडेवलपमेंटल समस्या है। हालांकि यह किसी भी उम्र में हो सकती है, इसकी शुरुआत आमतौर पर बचपन में ही होती है। यदि माता-पिता अपने बच्चे के व्यवहार में दिख रहे शुरुआती बदलावों को समझ लें, तो इस स्थिति को बेहतर ढंग से प्रबंधित किया जा सकता है। नेशनल ऑटिस्टिक प्राइड डे के अवसर पर, आइए विस्तार से जानते हैं कि माता-पिता अपने बच्चे में ऑटिज्म के लक्षणों को कैसे पहचान सकते हैं और इसका प्रबंधन कैसे किया जा सकता है।READ ALSO:-चुनाव आयोग की ऐतिहासिक पहल: अब 15 दिन में बनेगा आपका वोटर ID, फर्जी वोटिंग पर लगेगी लगाम!
क्या है ऑटिज्म (Autism)?
ऑटिज्म, जिसे ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर (ASD) भी कहते हैं, एक न्यूरोडेवलपमेंटल बीमारी है जो मस्तिष्क के कार्यों को प्रभावित करती है। इस स्थिति से प्रभावित बच्चे या व्यक्ति का व्यवहार, संचार और सामाजिक मेलजोल का तरीका सामान्य लोगों से काफी अलग होता है। यह एक जन्मजात स्थिति है और इसे मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित बीमारियों की श्रेणी में रखा जाता है। ऑटिज्म से जूझ रहे व्यक्तियों को बातचीत करने, दूसरों के साथ जुड़ने और अपने व्यवहार को नियंत्रित करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
भारत में ऑटिज्म: आंकड़े और चुनौतियां
भारत में ऑटिज्म की स्थिति चिंताजनक है। हर 68 में से 1 बच्चे को ऑटिज्म या ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर (ASD) होने का खतरा बना रहता है। यह आंकड़ा वैश्विक ट्रेंड के समान है, लेकिन हमारे देश की सामाजिक और चिकित्सकीय स्थिति इसे एक अनूठी चुनौती बना देती है। हाल के अध्ययनों से भी पता चला है कि भारत में ऑटिज्म की दर वैश्विक स्तर के समान ही है। हालांकि, देश के कई हिस्सों में न्यूरोडायवर्स बच्चों को समय पर पहचान, उचित थेरेपी और सामुदायिक सहयोग नहीं मिल पाता है, जिससे उनकी स्थिति का प्रबंधन मुश्किल हो जाता है।
आकाश हेल्थकेयर की पीडियाट्रिक्स एवं नियोनेटोलॉजी की वरिष्ठ सलाहकार, डॉ. मीना जे बताती हैं कि, "विशेषज्ञों का मानना है कि ऑटिज्म में मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखना उतना ही जरूरी है, जितना कि व्यवहार से जुड़ी समस्याओं का इलाज। ऑटिज़्म से जूझ रहे कई बच्चे और वयस्क चिंता, डिप्रेशन, मूड स्विंग्स और भावनात्मक असंतुलन का सामना करते हैं, क्योंकि वे अपने भाव ठीक से जाहिर नहीं कर पाते या सामाजिक परिस्थितियों को पूरी तरह से समझ नहीं पाते।"
डॉ. मीना जे जोर देती हैं कि अगर मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं को नज़रअंदाज़ किया गया तो इससे बच्चों की सीखने की क्षमता, उनके रिश्ते और उनके संपूर्ण विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। मानसिक स्वास्थ्य के लिए सहयोग केवल दवाओं या थेरेपी रूम तक सीमित नहीं रहना चाहिए, इसमें परिवार, स्कूल और समाज को भी सक्रिय रूप से शामिल करना ज़रूरी है।
ऑटिज्म के 3 सबसे आम लक्षण: माता-पिता कैसे पहचानें?
अगर आपको अपने बच्चे में नीचे दिए गए लक्षण दिखते हैं, तो विशेषज्ञ से सलाह लेना महत्वपूर्ण है:
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भाषा सीखने में दिक्कत: बच्चा अपनी उम्र के हिसाब से बोलना शुरू नहीं करता, कम शब्द बोलता है, या बोलता है तो दोहराता है (इकोलालिया)। उसे दूसरों की बातें समझने और अपनी बात कहने में परेशानी होती है।
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छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा होना: बच्चा बेवजह या छोटी-छोटी बातों पर बहुत अधिक गुस्सा करता है, चिड़चिड़ा हो जाता है, या हिंसक व्यवहार भी कर सकता है। वह अपनी भावनाओं को नियंत्रित नहीं कर पाता।
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नींद ना आना/नींद की समस्या: बच्चे को सोने में परेशानी होती है, वह बार-बार जागता है, या उसकी नींद का पैटर्न अनियमित होता है। नींद की कमी उसके व्यवहार और विकास को और प्रभावित कर सकती है।
इनके अलावा, सामाजिक मेलजोल में कमी (आई कॉन्टैक्ट न बनाना, नाम पुकारने पर प्रतिक्रिया न देना), बार-बार एक ही क्रिया दोहराना (हाथ फड़फड़ाना, घूमना), किसी विशेष चीज़ के प्रति अत्यधिक लगाव, और दिनचर्या में बदलाव बर्दाश्त न कर पाना भी ऑटिज्म के सामान्य लक्षण हैं।
ऑटिज्म की रोकथाम और प्रबंधन: क्या है एक्सपर्ट की राय?
नोएडा के सीनियर और मशहूर न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. प्रवीण गुप्ता बताते हैं कि ऑटिज्म से जुड़े मिथकों को तोड़ने और शुरुआती पहचान को बढ़ावा देने के लिए बड़े पैमाने पर जन-जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए। इसके लिए कुछ ज़रूरी कदम उठाने की आवश्यकता है:
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स्कूल आधारित स्क्रीनिंग: शिक्षकों और काउंसलरों द्वारा स्कूलों में बच्चों की शुरुआती स्क्रीनिंग की जानी चाहिए, जहाँ ऑटिज्म के संकेतों के बारे में जानकारी दी जाए।
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सरकारी फंडिंग में वृद्धि: परामर्श और थेरेपी सेवाओं को व्यापक स्तर पर और सभी के लिए सुलभ बनाने हेतु सरकारी फंडिंग बढ़ाई जानी चाहिए।
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शुरुआती हस्तक्षेप: 2 से 5 साल की उम्र में दिखने वाले संकेतों को समझकर शुरुआती दौर में ही स्पीच थेरेपी, बिहेवियरल थेरेपी और सोशल स्किल्स थेरेपी से बीमारी को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है और बच्चे के विकास में मदद मिल सकती है।
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दूरस्थ क्षेत्रों में इलाज: छोटे शहरों और गांवों में टेलीसेशंस और माता-पिता को प्रशिक्षण (पैरेंट ट्रेनिंग) के ज़रिए उपचार और सहायता उपलब्ध करवाई जा सकती है।
ऑटिज्म के बारे में जागरूकता बढ़ाना और शुरुआती पहचान सुनिश्चित करना ही बच्चों के बेहतर भविष्य की कुंजी है। यदि आपको अपने बच्चे में ऑटिज्म के कोई भी लक्षण दिखते हैं, तो तुरंत किसी विशेषज्ञ (बाल रोग विशेषज्ञ, न्यूरोलॉजिस्ट या डेवलपमेंटल पीडियाट्रिशियन) से संपर्क करें।
Disclaimer: ऊपर दी गई जानकारी केवल सामान्य ज्ञान के उद्देश्य से है और इसे चिकित्सा सलाह के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। किसी भी स्वास्थ्य समस्या के लिए कृपया योग्य विशेषज्ञ से सलाह लें। 'Khabreelal Media' किसी भी जानकारी की सटीकता का दावा नहीं करता है।
